नदी कहने को तो नदी है लेकिन मुझे कुछ मां जैसी लगती है इस प्रकार मां अपने बच्चे को नहीं लाते पिलाती है ताकि वह सुंदर हो स्वच्छ हो इसी प्रकार गंगा मां अपने बच्चों के सारे पाप धुल देती है ताकि उनके बच्चे फिर से स्वच्छ निर्मल पाप रहित हो जाएं लेकिन हम बच्चे उस मां की कदर नहीं कर रहे हैं क्यों आखिर क्यों हम अपनी मां को भी मेला और प्रदूषित कर रहे हैं इससे अच्छा तो प्राचीन काल में लोग हुआ करते थे जो प्रकृति का हमेशा ख्याल रखते थे आधुनिकीकरण ने हमारी जीने के तरीकों को विकसित तो बनाया है लेकिन हमें संवेद नाउ और मानवीय मूल्य में उतना ही अविकसित कर दिया ह, पहले मनुष्य इंसान की संवेदना को ही नहीं अपितु प्रकृति की संवेदनाएं भी समझता था उसमें दया प्रेम इत्यादि के भाव भरे पड़े थे जिससे वो किसी भी जीव जंतु या प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाता था लेकिन अब प्रकृति तो छोड़ो अपनों की भी कदर नहीं करता।
इंसान क्या हो गया है तुझे आखिर बहा अपनी दिल में दया की धारा
नहीं तो मिट जाएगा यह संसार सारा
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